तीन महीने की शांति के बाद देश की जनता एक बार फिर बुधवार सुबह हुए धमाकों से दहल गई। इस बार भारत के दुश्मनों ने भारत की राजधानी में स्थित न्याय के मंदिर को निशाना बनाया है।
दिल्ली हाई कोर्ट के बाहर हुए बुधवार सुबह हुए एक शक्तिशाली धमाके में कई लोगों को अपनी जान गंवाना पड़ी। गौरतलब है कि तीन महीने पहले 13 जुलाई 2011 को मुंबई में कई जगहों पर कुछ अंतराल में हुए धमाकों ने पूरे भारत को थर्रा दिया था।
इस धमाके का गुबार अभी थमा भी नहीं कि राजनेता, नौकरशाह और जनता की सुरक्षा के जिम्मेदार हमेशा की तरह वही पुराने रटे-रटाए सरकारी बयान दे रहे हैं। चिथड़े हुए इन बयानों के सुराखों में कई सवाल झांकते नजर आ रहे हैं। जनता का विश्वास खोती सरकार राजधानी में हुए इस धमाके से सकते में है।
इसी साल 25 मई को भी दिल्ली हाई कोर्ट के बाहर कार पार्किंग में कम तीव्रता का धमाका हुआ था। हांलाकि इन धमाकों में कोई भी घायल या हताहत नहीं हुआ था पर इसके बाद सुरक्षा को और अधिक पुख्ता करने को लेकर कई दावे और कवायदे की गई थीं। हर बार की तरह कुछ दिनों तक चौकस रहने के बाद जैसे ही सुरक्षा थोड़ी ढीली हुई, वैसे ही आतंकी अपने घृणित इरादों में कामयाब हो गए।
लोकतांत्रिक आंदोलन से कड़ाई से निपटने वाले गृहमंत्री अभी मुंबई धमाकों की कालिख साफ करने में लगे ही थे कि दिल्ली हाई कोर्ट में हुए धमाके ने उनके दामन पर एक और निशान लगा दिया। बार-बार भारत के प्रमुख शहरों को निशाना बनाते आतंकी स्पष्ट रूप से अपना संदेश दे रहे है कि वे जब चाहे अपने इरादों में कामयाब हो सकते हैं।
आतंकियों के बढ़े हुए हौसले का एक कारण भारत का लचर कानून भी है। हाल के दिनों में भारतीय कानून की सबसे बड़ी खामियां उजागर हुई। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों की सजा-ए-मौत पर राष्ट्रपति द्वारा रहम की अपील खारिज करने के बाद भी तमिलनाडु विधानसभा में उन्हें माफी दिए जाने को लेकर इतना हंगामा हुआ कि अभियुक्तों की फांसी आगे बढ़ाना पड़ी। मुंबई हमले के एकमात्र जीवित पकड़े गए आतंकी अजमल कसाब को भी अब तक सजा नहीं हुई है।
केंद्र सरकार का पूरा ध्यान अभी अपनी सत्ता बचाने में लगा है। घोटालों और भ्रष्टाचार के मामले लगातार उजागर होते जा रहे हैं। इस पर से आतंकी हमले सीधे-सीधे सरकार की काबिलियत पर सवाल उठाने लगे हैं। आखिर कब तक इस देश की जनता पीड़ित होती रहेगी? कब तक देश के दुश्मनों को सरकारी मेहमान बनाया जाता रहेगा? ऐसे कई सवाल हैं जिनका जवाब सरकार को तत्काल देना होगा।
दिल्ली हाई कोर्ट के बाहर हुए बुधवार सुबह हुए एक शक्तिशाली धमाके में कई लोगों को अपनी जान गंवाना पड़ी। गौरतलब है कि तीन महीने पहले 13 जुलाई 2011 को मुंबई में कई जगहों पर कुछ अंतराल में हुए धमाकों ने पूरे भारत को थर्रा दिया था।
इस धमाके का गुबार अभी थमा भी नहीं कि राजनेता, नौकरशाह और जनता की सुरक्षा के जिम्मेदार हमेशा की तरह वही पुराने रटे-रटाए सरकारी बयान दे रहे हैं। चिथड़े हुए इन बयानों के सुराखों में कई सवाल झांकते नजर आ रहे हैं। जनता का विश्वास खोती सरकार राजधानी में हुए इस धमाके से सकते में है।
इसी साल 25 मई को भी दिल्ली हाई कोर्ट के बाहर कार पार्किंग में कम तीव्रता का धमाका हुआ था। हांलाकि इन धमाकों में कोई भी घायल या हताहत नहीं हुआ था पर इसके बाद सुरक्षा को और अधिक पुख्ता करने को लेकर कई दावे और कवायदे की गई थीं। हर बार की तरह कुछ दिनों तक चौकस रहने के बाद जैसे ही सुरक्षा थोड़ी ढीली हुई, वैसे ही आतंकी अपने घृणित इरादों में कामयाब हो गए।
लोकतांत्रिक आंदोलन से कड़ाई से निपटने वाले गृहमंत्री अभी मुंबई धमाकों की कालिख साफ करने में लगे ही थे कि दिल्ली हाई कोर्ट में हुए धमाके ने उनके दामन पर एक और निशान लगा दिया। बार-बार भारत के प्रमुख शहरों को निशाना बनाते आतंकी स्पष्ट रूप से अपना संदेश दे रहे है कि वे जब चाहे अपने इरादों में कामयाब हो सकते हैं।
आतंकियों के बढ़े हुए हौसले का एक कारण भारत का लचर कानून भी है। हाल के दिनों में भारतीय कानून की सबसे बड़ी खामियां उजागर हुई। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों की सजा-ए-मौत पर राष्ट्रपति द्वारा रहम की अपील खारिज करने के बाद भी तमिलनाडु विधानसभा में उन्हें माफी दिए जाने को लेकर इतना हंगामा हुआ कि अभियुक्तों की फांसी आगे बढ़ाना पड़ी। मुंबई हमले के एकमात्र जीवित पकड़े गए आतंकी अजमल कसाब को भी अब तक सजा नहीं हुई है।
केंद्र सरकार का पूरा ध्यान अभी अपनी सत्ता बचाने में लगा है। घोटालों और भ्रष्टाचार के मामले लगातार उजागर होते जा रहे हैं। इस पर से आतंकी हमले सीधे-सीधे सरकार की काबिलियत पर सवाल उठाने लगे हैं। आखिर कब तक इस देश की जनता पीड़ित होती रहेगी? कब तक देश के दुश्मनों को सरकारी मेहमान बनाया जाता रहेगा? ऐसे कई सवाल हैं जिनका जवाब सरकार को तत्काल देना होगा।
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