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शनिवार, 6 अगस्त 2011

प्रेमी या दोस्त...सच्चा है कि कच्चा...ऐसे पहचाने!








 फ्रेंडशिप डे विशेष
 हमारे मन का स्वभाव ऐसा है कि वह मीठा बोलने वालों को ही ज्यादा पंसंद करता है। अच्छे-बुरे से मन को कुछ लेना-देना नहीं। असली दोस्त की पहचान में भी इसी कारण से इंसान से भूल हो जाती है। व्यक्ति मीठा बोलने वाले मनोरंजक व्यक्ति को ही अपना पक्का दोस्त समझ बैठते हैं, जबकि असलियत में ऐसा कुछ होता नहीं।

इस विषय में कबीरदास जी ने बहुत सही बात कही है-


''निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटि छवाय।


 बिन पानी बिन साबुने,  निर्मल करे सुभाय।।''

इसीलिये कहते हैं सच्चा दोस्त उस निदंक की तरह होता है जो अच्छाईयों पर आपकी तारीफ  तो करेगा ही लेकिन बगैर किसी लाग-लपेट के  आपकी बुराईयों को उजागर करेगा और उनको दूर करने में आपकी मदद भी करता है।

ऐसा ही एक किस्सा है कृष्ण और अर्जुन  की दोस्ती का द्वारिका में एक ब्राह्मण के घर जब भी कोई बालक जन्म लेता तो वह तुरंत मर जाता एक बार वह ब्राह्मण अपनी ये व्यथा लेकर कृष्ण के पास पहुंचा परन्तु कृष्ण ने उसे नियती का लिखा कहकर टाल दिया। उस समय वहां अर्जुन भी मौजूद थे।अर्जुन को अपनी शक्तियों पर बड़ा गर्व था।


अपने मित्र की मदद करने के लिए अर्जुन ने ब्राह्मण को कहा कि मैं तुम्हारे पुत्रों की रक्षा करूंगा। तुम इस बार अपनी पत्नी के प्रसव के समय मुझे बुला लेना ब्राह्मण ने ऐसा ही किया लेकिन यमदूत आए और ब्राह्मण के बच्चे को लेकर चले गए।


अर्जुन ने प्रण किया था कि अगर वह उसके बालकों को नहीं बचा पाएगा तो आत्मदाह कर लेगा। जब अर्जुन आत्म दाह करने के लिए तैयार हुए तभी श्री कृष्ण ने अर्जुन को रोकते हुए कहा कि यह सब तो उनकी माया थी उन्हें ये बताने के लिए कि कभी भी आदमी को अपनी ताकत पर गर्व नहीं करना चाहिए क्यों कि नियती से बड़ी कोई ताकत नहीं होती। 


कृष्ण अर्जुन को अपना शिष्य ही नहीं बल्कि मित्र भी मानते थे। जब उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि उनके मित्र अर्जुन के मन में अपनी शक्तियों और क्षमताओं को लेकर अहंकार पैदा हो गया है तो उन्हेंने जान बूझकर यह सारा खेल रचाया। ताकि अर्जुन को यह अहसास हो सके कि इंसान के हाथ में सब कुछ नहीं है।

ऐसा करके कृष्ण ने अर्जुन के प्रति अपनी मित्रता का फर्ज ही निभाया तथा अर्जुन को अहंकार से दूर किया।

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