ब्रिटिश मिड्लैंड्स में रहने वाले एक पूर्व फैक्टरी कर्मचारी सदियों पुरानी सिख युद्धकला के इकलौते जीवित उस्ताद हो सकते हैं। फिलहाल सिखों की कला 'शस्त्र विद्या' के यह गुरु अपना उत्तराधिकारी ढूंढ़ रहे हैं।
44 वर्षीय निदार सिंह पहले वूल्वरहैंप्टन में खाना पैक करते थे। आज उनका जीवन इस कला को बांटने में लगा है। शस्त्र विद्या का विकास 17वीं शताब्दी में सिख धर्म पर दूसरे धर्मों के हमलों से बचाने के लिए किया गया था।
ब्रिटिश शासकों ने 19वीं सदी में सिखों को हथियार छोड़ने पर मजबूर किया था, जिसके बाद इस विद्या का रियाज कछ ही लोग करते रहे हैं।
शस्त्र विद्या : शस्त्र विद्या या शस्त्र विज्ञान का आधार पांच चरणों की चाल है, जो इस प्रकार हैं- दुश्मन की ओर बढ़ना, उसके बगल में हमला करना, दुश्मन की मार से बचना, एक प्रभावशाली मोर्चा लेना और फिर जोरदार वार करना।
निदार सिंह युद्ध शास्त्र के कौशल को सीखने के लिए लायक उत्तराधिकारी ढूंढ रहे हैं। हालांकि उनके पास कई विद्यार्थी आते हैं, लेकिन इस विद्या को सीखने के लिए जो लगन और समय चाहिए, वो आधुनिक जीवनशैली से मेल नहीं खाता।
निदार सिंह कहते हैं, 'मैं पूरे भारत में यात्रा कर चुका हूं और मैंने कई बड़े-बूढों से बात की है। किसी को ढूंढ निकालने का यह आखिरी प्रयास है क्योंकि अगर इस विद्या को मैं बांट नहीं पाया तो मेरी मौत के साथ इसका भी अंत हो जाएगा।'
निदार सिंह कहते हैं कि वो भारत में किसी दूसरे युद्ध शास्त्र के गुरु या फिर कोई लायक वारिस जो इस कला को अपनी जीवन दे, उसे ढ़ूंढ कर बेहद खुश होंगे।
कहानी : निदार सिंह का बचपन पंजाब और इंग्लैंड के बीच गुजरा। एक ऐसी ही भारत यात्रा में उनकी मुलाकात 80 साल के बाबा मोहिंदर सिंह से हुई जो उनके गुरु बन गए।
निदार सिंह के शरीर की बनावट देखकर बाबा ने उनसे पूछा कि क्या वो युद्घ कला सीखना चाहेंगे। निदार का जवाब हां था और तब से लेकर अगले 11 साल तक वो अपने उस्ताद के साथ इस कला को सीखते और मांजते रहे।
1995 में वो इंग्लैंड वापस लौट आए जहां उन्होंने एक फैक्टरी में नौकरी की और सिखों के युद्ध इतिहास पर शोध करते रहे। इसी दौरान उन्हें ये विद्या सिखाने की हिम्मत पैदा हुई और फिर उनके पास सीखने को इच्छुक लोग भी आते रहें।
लेकिन आज भी उनके सबसे कुशल विद्यार्थी सिर्फ उसी स्तर तक पहुंच सके हैं जहां वो बिना घायल हए अपने गुरु से हथियार के साथ लड़ भर सकते हैं। विरोध लगभग दो सौ साल पहले भूलाई गई इस कला की शिक्षा देने के दौरान उन्हें कई धमकियां भी मिलीं।
वो बताते हैं कि पहले दो साल में उन्हें जान से मारने की 84 धमकियां मिली। कई सिख गुट उनका विरोध करते हैं क्योंकि वो शस्त्र विद्या और निदार की निहंग पंथ की विचारधारा से इत्तेफाक नहीं रखते।
लंदन यूनिवर्सिटी में दक्षिण एशियाई अध्ययन के एक प्रोफेसर क्रिस्टोफर शैकल कहते हैं कि निहंग 17वीं सदी के अंत में बेहद ताकतवर पंथ था। वो कहते हैं, 'सिख धर्म विकास के कई दौर से गुजरा है। जब 17वीं शताब्दी के आखिर में निहंग पंथ की स्थापना हुई तो वो बहुत शक्तिशाली हो गए थे लेकिन बाद में कमजोर पड़ गए।'
निदार ऐसे ही एक निहंग योद्धा हैं, जो भारत और पाकिस्तान की यात्रा करते रहते हैं। वो निहंगों की कला पर खोज करते रहते हैं और साथ ही अपने हथियारों के जखीरे में नया अस्त्र-शस्त्र जोड़ते रहते हैं।
अपनी यात्राओं के दौरान उन्हें सिर्फ चार ऐसे लोग मिले हैं जो युद्ध शास्त्र में खुद को गुरु बताते थे। लेकिन आज उनमें से कोई भी जीवित नहीं है।
निदार सिंह के एक शिष्य परमजीत सिंह कहते हैं, 'निदार सिंह एक ऐसे व्यक्ति हैं जो सीधे 18वीं सदी से चला आया हो। वो अतीत में झांकता हुआ एक झरोखा हैं।' लेकिन शायद इसके अलावा निदार सिंह भविष्य का खुलता दरवाजा भी हैं, जो आने वाले विद्यार्थियों को इस कला के पथ पर ले जाता है।
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