कैलेंडर तारीखों का हो
या जिंदगी का
बदल ही जाता है
हर बदलते माह के साथ
बचपन, जवानी और बुढ़ापे के
बदलते परिदृश्य
जिंदगी को कैलेंडर-सा
बना ही जाते हैं
शुरू के कुछ माह
यूँ गुजरते हैं
ज्यों मासूम बचपन
गुजर जाता है
और पता भी नहीं चलता
फिर कुछ माह मध्यांतर के
जिंदगी को व्यवस्थित करने में
बीत जाते हैं
जैसे जवानी से
प्रौढ़ावस्था तक का सफर
कभी फूलों की सेज-सा
तो कभी कांटों के बिस्तर-सा
कभी बसंत के आगमन-सा
तो कभी ग्रीष्म के ताप-सा
गुजर जाता है।
और फिर अंतिम माह
चाहे जिंदगी के हो
या कैलेंडर के
अपनी विदाई का संदेश देते
बोझिल, थकित, उदास से
जैसे वृद्धावस्था जीवन का
पुनरावलोकन कर रही हो
और फिर अंतिम पड़ाव की
ओर अग्रसर हो रही हो
और फिर एक दिन
कैलेंडर बदल जाता है
तारीखों का भी और
जिंदगी का भी।
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